Tuesday, January 15, 2008
अब तो जागो
"इंतहा हो गई इंतजार की , आयी ना कुछ खबर इंसाफ की"......... यही दास्तां है भोपाल गैस त्रासदी के पीडितो की। २ दिसम्बर १९८४ की उस काली रात की यादें भले ही भोपाल के पाँश इलाकों में रहने वाले नागरिकों के जहन में धुधंली हो गई हो परन्तु जो लोग इस त्रासदी से प्रभावित हुए वे उसे भूल जाना चाहते हैं। २३ साल पहले की त्रासदी के एक ख्याल से लोगों की रूह कांप जाती है। यूनियन कारबाइड के कारखाने से हुई उस जहरीली गैस के रिसाव ने लोगों को ताउम्र ग्रसित कर दिया है। सरकार ने मुआवजा तो बाटां पर उसमें भी उचें कद के लोग मलाई खा गये।सरकारी आकडों के मुताविक अभी तक मात्र दो किश्त मुआवजे की अदा की गई है। वह भी अभी तक मुआवजे का ब्याज मात्र ही वितरीत हुआ है। असल तो अभी सरकार के अधीकार में है। तथा जो लोग भीषण रूप से पीडित हैं वह तो आज भी इंसाफ मिलने का इंतजार कर रहें है। गैस पीडितों के स्वास्थ्य हेतु निर्मित चिकित्सालय भी शहर से इतना दूर है कि मरीज जिनके पास और कोई साधन नहीं हैवज जाते-जाते ही दम तोडंते है। सरकार को यह बात समझनी होगी कीपराए धन को सम्मान वितरण कर देना चाहिए अन्यथा इतने गरीबों की हाय ले डूबेगी।
बस यूँ ही
क्यों कोई दिल को छू जाता है,
क्यों कोई अपनेपन का एहसास दे जाता है
छूना जो चाहो बढा़कर हाथ,
क्यों कोई साये सा दूर चला जाता है
सब बहुत अपनापन जताते है,
खुद को हमारा मीत बताते है,
पर जब छाते है काले बादल,
क्यों वे धूप से छावँ हो जाते हैं
कोई बता दे उन नाम के अपनों को,
ये दिल दिखने में श्याम ही सही,
पर दुखता तो है
हम औरों की तरह ना सही,
पर बनाया तो उसने आप सा ही है ।
क्यों कोई अपनेपन का एहसास दे जाता है
छूना जो चाहो बढा़कर हाथ,
क्यों कोई साये सा दूर चला जाता है
सब बहुत अपनापन जताते है,
खुद को हमारा मीत बताते है,
पर जब छाते है काले बादल,
क्यों वे धूप से छावँ हो जाते हैं
कोई बता दे उन नाम के अपनों को,
ये दिल दिखने में श्याम ही सही,
पर दुखता तो है
हम औरों की तरह ना सही,
पर बनाया तो उसने आप सा ही है ।
एक और नया दिन
आज फिर एक नया दिन शुरु हुआ,
नई चुनौतियों का सिलसिला शुरु हुआ,
बहुत कुछ है जो घट रहा है,
किसे तवज्जो दें इस बात पर सिर खप रहा है,
एक तरफ देश की नयी मिसाईल है,
तो दूसरी ओर बिपाशा का छोङा जातिय बम,
शरीफ जी कहीं घर लौट रहे हें ,
तो कहीं तस्लीमा खुद के घर से तंग,
ये सब हलचल कुछ थमी ही थी कि नई शुरु हो गई,
आज सुबह-सुबह ही धरती के प्रकोप से मुलाकात हो गई,
जो भी हो अब शाम हो चुकी है,
दिमाग की बत्ती भी अब गुल सी हो चुकी है,
कल की कल देखेंगे जो होगा,अभी तो बस ये गरम रजाई दिख रही है..........
Sunday, January 13, 2008
उफ ये लोग़!
आज एक अज़ब बात हुई,
कट कर निकल जाते थे उन से बात हुई,
निकले तो थे अपने काम से,
और हमसे कटते-कटते टकरा गए,
जिन्हें न थी फरसत दिवाली तक की बधाई देने की,
आज हमारी दिनचर्या में शामिल हुए,
बस यूँ ही बाजार से लौटते वो हमसे टकरा गए
हमारा हाल तो छोडों सीधे मुद्दे पर आ गये,
इधर - उधर की बातों की फुरसत कहां,
वो तो बस अपनी कम्पनी की बुक पकडा़ गये
अब क्या कहें इन बड़े घर के लोगों को ,
हर जगह अपना काम निकाल लेते हैं,
जरूरत पड़ने पर ये क्या नहीं कर गुजरते ,
जैसे गधों को भी खास बना लेते हैं।
कट कर निकल जाते थे उन से बात हुई,
निकले तो थे अपने काम से,
और हमसे कटते-कटते टकरा गए,
जिन्हें न थी फरसत दिवाली तक की बधाई देने की,
आज हमारी दिनचर्या में शामिल हुए,
बस यूँ ही बाजार से लौटते वो हमसे टकरा गए
हमारा हाल तो छोडों सीधे मुद्दे पर आ गये,
इधर - उधर की बातों की फुरसत कहां,
वो तो बस अपनी कम्पनी की बुक पकडा़ गये
अब क्या कहें इन बड़े घर के लोगों को ,
हर जगह अपना काम निकाल लेते हैं,
जरूरत पड़ने पर ये क्या नहीं कर गुजरते ,
जैसे गधों को भी खास बना लेते हैं।
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