God made man and woman,
To have a life of their own
He made several feelings
To help them for a perfect growth
Man was gifted with machoism
And woman was given the sweet things
And He sowed a vital seed in them named TRUST
To have peace at heart
But today a question has aroused
Amidst of this mad and wicked world
Who can we trust?
The person we love,on whom we depend
Leaves us in the middle of the game
We trust him, care for him, pray for him
Without any expectation of a return
But then he just walks out of our heart
With no guilt or bad feelings
In this cruel world who can be trusted,
Is a good old question
Searching for the answer
Are we with an innocent intention......
Wednesday, April 9, 2008
Tuesday, January 15, 2008
अब तो जागो
"इंतहा हो गई इंतजार की , आयी ना कुछ खबर इंसाफ की"......... यही दास्तां है भोपाल गैस त्रासदी के पीडितो की। २ दिसम्बर १९८४ की उस काली रात की यादें भले ही भोपाल के पाँश इलाकों में रहने वाले नागरिकों के जहन में धुधंली हो गई हो परन्तु जो लोग इस त्रासदी से प्रभावित हुए वे उसे भूल जाना चाहते हैं। २३ साल पहले की त्रासदी के एक ख्याल से लोगों की रूह कांप जाती है। यूनियन कारबाइड के कारखाने से हुई उस जहरीली गैस के रिसाव ने लोगों को ताउम्र ग्रसित कर दिया है। सरकार ने मुआवजा तो बाटां पर उसमें भी उचें कद के लोग मलाई खा गये।सरकारी आकडों के मुताविक अभी तक मात्र दो किश्त मुआवजे की अदा की गई है। वह भी अभी तक मुआवजे का ब्याज मात्र ही वितरीत हुआ है। असल तो अभी सरकार के अधीकार में है। तथा जो लोग भीषण रूप से पीडित हैं वह तो आज भी इंसाफ मिलने का इंतजार कर रहें है। गैस पीडितों के स्वास्थ्य हेतु निर्मित चिकित्सालय भी शहर से इतना दूर है कि मरीज जिनके पास और कोई साधन नहीं हैवज जाते-जाते ही दम तोडंते है। सरकार को यह बात समझनी होगी कीपराए धन को सम्मान वितरण कर देना चाहिए अन्यथा इतने गरीबों की हाय ले डूबेगी।
बस यूँ ही
क्यों कोई दिल को छू जाता है,
क्यों कोई अपनेपन का एहसास दे जाता है
छूना जो चाहो बढा़कर हाथ,
क्यों कोई साये सा दूर चला जाता है
सब बहुत अपनापन जताते है,
खुद को हमारा मीत बताते है,
पर जब छाते है काले बादल,
क्यों वे धूप से छावँ हो जाते हैं
कोई बता दे उन नाम के अपनों को,
ये दिल दिखने में श्याम ही सही,
पर दुखता तो है
हम औरों की तरह ना सही,
पर बनाया तो उसने आप सा ही है ।
क्यों कोई अपनेपन का एहसास दे जाता है
छूना जो चाहो बढा़कर हाथ,
क्यों कोई साये सा दूर चला जाता है
सब बहुत अपनापन जताते है,
खुद को हमारा मीत बताते है,
पर जब छाते है काले बादल,
क्यों वे धूप से छावँ हो जाते हैं
कोई बता दे उन नाम के अपनों को,
ये दिल दिखने में श्याम ही सही,
पर दुखता तो है
हम औरों की तरह ना सही,
पर बनाया तो उसने आप सा ही है ।
एक और नया दिन
आज फिर एक नया दिन शुरु हुआ,
नई चुनौतियों का सिलसिला शुरु हुआ,
बहुत कुछ है जो घट रहा है,
किसे तवज्जो दें इस बात पर सिर खप रहा है,
एक तरफ देश की नयी मिसाईल है,
तो दूसरी ओर बिपाशा का छोङा जातिय बम,
शरीफ जी कहीं घर लौट रहे हें ,
तो कहीं तस्लीमा खुद के घर से तंग,
ये सब हलचल कुछ थमी ही थी कि नई शुरु हो गई,
आज सुबह-सुबह ही धरती के प्रकोप से मुलाकात हो गई,
जो भी हो अब शाम हो चुकी है,
दिमाग की बत्ती भी अब गुल सी हो चुकी है,
कल की कल देखेंगे जो होगा,अभी तो बस ये गरम रजाई दिख रही है..........
Sunday, January 13, 2008
उफ ये लोग़!
आज एक अज़ब बात हुई,
कट कर निकल जाते थे उन से बात हुई,
निकले तो थे अपने काम से,
और हमसे कटते-कटते टकरा गए,
जिन्हें न थी फरसत दिवाली तक की बधाई देने की,
आज हमारी दिनचर्या में शामिल हुए,
बस यूँ ही बाजार से लौटते वो हमसे टकरा गए
हमारा हाल तो छोडों सीधे मुद्दे पर आ गये,
इधर - उधर की बातों की फुरसत कहां,
वो तो बस अपनी कम्पनी की बुक पकडा़ गये
अब क्या कहें इन बड़े घर के लोगों को ,
हर जगह अपना काम निकाल लेते हैं,
जरूरत पड़ने पर ये क्या नहीं कर गुजरते ,
जैसे गधों को भी खास बना लेते हैं।
कट कर निकल जाते थे उन से बात हुई,
निकले तो थे अपने काम से,
और हमसे कटते-कटते टकरा गए,
जिन्हें न थी फरसत दिवाली तक की बधाई देने की,
आज हमारी दिनचर्या में शामिल हुए,
बस यूँ ही बाजार से लौटते वो हमसे टकरा गए
हमारा हाल तो छोडों सीधे मुद्दे पर आ गये,
इधर - उधर की बातों की फुरसत कहां,
वो तो बस अपनी कम्पनी की बुक पकडा़ गये
अब क्या कहें इन बड़े घर के लोगों को ,
हर जगह अपना काम निकाल लेते हैं,
जरूरत पड़ने पर ये क्या नहीं कर गुजरते ,
जैसे गधों को भी खास बना लेते हैं।
Saturday, January 12, 2008
हमारे अपने
हेलो mom कैसी हो ? dad से कहना उनका cheque जमा करवा दें बस अभी मेरा isd लग रहा है बाय ये हो गई है आज कल के बच्चों की भाषा अपने माता-पिता से बात करते समय माँ अब mom बन चुकी है तो पिताजी पापा से dad की उपाधि पा चुके हैं जिनके हाथों से निवाला खाया, जिन्हों ने विदेश की पढाई का अवसर प्रदान किया वो अब नौकरी लगने के बाद सिर्फ मुफ्त के नौकर बनकर रह गए हैं पहले के संयुक्त परिवारों मैं जहाँ सगे-सौतेले मैं कोई फर्क नहीं था वहीं अब वो बस cousins and relatives बनकर रह गए हैं रिश्ते तो बस नाम के रह गए हैं क्या हम फिर से पीछे लौटते हुए पशु प्रवृत्ति अपना रहे हैं जैसे पशु के बच्चे परिपक्व होने के बाद माता-पिता को भूलकर आगे बढ़ जाते हैं वैसे ही अब हमारा समाज होता जा रहा है क्या हमें इस दिशा मैं सोचने की ज़रूरत नहीं है? अगर आपको भी ऐसा ही लगता है तो आप इस गलती को सुधरने के लिए क्या करेंगे?
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